1
गिर्यां हैं अब्र-ए-चश्म मेरी अश्क बार देख
है बर्क़ बेक़रार, मुझे बेक़रार देख
फि़रदौस देखने की अगर आबरू है तुझ
ऐ ज्यू पी के मुख के चमन की बहार देख
हैरत का रंग लेके लिखे शक्ल-ए-बेख़ुदी
तेरे अदा-ओ-नाज़ को मा'नी निगार देख
वो दिल कि तुझ दतन के ख़यालाँ सूँ चाक था
लाया हूँ तेरी नज्र बहा-ए-अनार देख
ऐ शहसवार तू जो चला है रक़ीब पास
सीने में आशिक़ाँ के उठा है ग़ुबार देख
तेरी निगाह ख़ातिर-ए-नाज़ुक पे बार है
ऐ बुलहवस न पी की तरफ़ बार-बार देख
तुझ इश्क़ में हुआ है जिगर ख़ून-ओ-दाग़दार
दिल में 'वली' के बैठ के ओ लाला ज़ार देख
2
जो कुई हर रंग में अपने कूँ शामिल कर नहीं गिनते
हमन सब आक़िलाँ में उस कूँ आक़िल कर नहीं गिनते
मुदर्रिस मदरिसे में गर न बोले दर्स दर्शन का
तो उसकूँ आशिक़ाँ उस्ताद-ए-कामिल कर नहीं गिनते
ख़याल-ए-ख़ाम को जो कुई कि धोवे सफ़्ह-ए-दिल सूँ
तसव्वुफ़ के मतालिब कूँ वो मुश्किल कर नहीं गिनते
जो बिस्मिल नईं हुआ तेरी नयन की तेग़ सूँ बिस्मिल
शहीदाँ जग के उस बिस्मिल को बिस्मिल कर नहीं गिनते
पिरत के पंथ में जो कुई सफ़र करते हैं रात-ओ- दिन
वो दुनिया कूँ बग़ैर अज़ चाह-ए-बावल कर नहीं गिनते
नहीं जिस दिल में पी की याद की गर्मी की बेताबी
तो वैसे दिल कूँ सादे दिलबराँ दिल कर नहीं गिनते
रहे महरूम तेरी ज़ुल्फ़ के मुहरे सूँ वो दाइम
जो कुई तेरी नयन कूँ ज़हर-ए-क़ातिल कर नहीं गिनते
न पावे वो दुनिया में लज़्ज़त-ए-दीवानगी हरगि़ज
जो तुझ ज़ुल्फ़ाँ के हल्क़े कूँ सलासिल कर नहीं गिनते
बग़ैर अज़ मारिफ़त सब बात में गर कुई अछे कामिल
'वली' सब अहल-इरफ़ाँ उसकूँ कामिल कर नहीं गिनते
3
ये मेरा रोना कि तेरी हँसी
आप बस नईं परबसी परबसी
है कुल आलम में करम मेरे उपर
जुज़ रसी है जुज़ रसी है जुज़ रसी
रात दिन जग में रफ़ीक-ए-बेकसाँ
बेकसी है बेकसी है बेकसी
सुस्त होना इश्क़ में तेरे सनम!
नाकसी है नाकसी है नाकसी
बाइस-ए-रुस्वाई-ए-आलम 'वली'
मुफ़लिसी है मुफ़लिसी है मुफ़लिसी
4
ज़बान-ए-यार है अज़ बस कि यार-ए-ख़ामोशी
बहार-ए-ख़त में है बर जा बहार-ए-ख़ामोशी
स्याही ख़त-ए-शब रंग सूँ मुसव्वर-ए-नाज़
लिखा निगार के लब पर निगार-ए-ख़ामोशी
उठा है लश्कर-ए-अहल-ए-सुख़न में हैरत सूँ
ग़ुबार-ए-ख़त सूँ सनम के ग़ुबार-ए-ख़ामोशी
ज़हूर-ए-ख़त में किया है हया ने बस कि ज़हूर
यो दिल शिकार हुआ है शिकार-ए-ख़ामोशी
हमेशा लश्कर-ए-आफ़ात सूँ रहे महफ़ूज़
नसीब जिसको हुआ है हिसार-ए-ख़ामोशी
ग़ुरूर-ए-ज़र सूँ बजा है सुकूत-ए-बेमा'नी
कि बेसदा है सदा कोहिसार-ए-ख़ामोशी
'वली' निगाह कर उस ख़त-ए-सब्ज़ रंग कूँ आज
कि तौर-ए-नूर में है सब्ज़ा ज़ार-ए-ख़ामोशी
5
मुश्ताक़ है उश्शाक़ तेरी बाँकी अदा के
ज़ख़्मी है महबाँ तेरी शमशीर-ए-जफ़ा के
हर पेच में चीरे के तिरे लिपटे हैं आशिक़
आलम के दिलाँ बंद हैं तुझ बंद-ए-क़बा के
लरज़ाँ हैं तिरे दस्त अगे पंजा-ए-ख़ुर्शीद
तुझ हुस्न अगे मात मलायक हैं समा के
तुझ ज़ुल्फ़ के हल्के में है दिल बंद 'वली' का
टुक मेहर करो हाल उपर बे सर-ओ-पा के
तनहा न 'वली' जग मिनीं लिखता है तिरे वस्फ़
दफ़्तर लिखा आलम ने तिरी मदह-ओ-सना के
6
जिसको लज़्ज़त है सुख़न के दीद की
उसको ख़ुशवक़्ती है रोज़-ए-ईद की
दिल मिरा मोती हो, तुझ बाली में जा
कान में कहता है बाताँ भेद की
ज़ुल्फ़ नईं तुझ मुख पे ऐ दरिया-ए-हुस्न
मौज है ये चश्म-ए-ख़ुर्शीद की
उसके ख़त-ओ-ख़ाल सूँ पूछो ख़बर
बूझता हिंदू है बाताँ बेद की
तुझ दहन कूँ देख कर बोला 'वली'
ये कली है गुलशन-ए-उम्मीद की
7
नर्गिस क़लम हुई है सजन तुझ नयन अगे
शक्कर डुबी है आब में तेरे बचन अगे
ग़ुंचे कूँ गुल के आब में आना मुहाल है
तेरे दहन की बात कहूँ गर चमन अगे
डाला है तेरे चीरे ने ग़ुंचे कूँ पेच में
हर गुल है सीना चाक तेरे पैरहन अगे
है तुझ नयन के पास मेरा अजज़ बे असर
ज़ारी न जावे पेश कधी राहज़न अगे
कर हाल पर 'वली' के पिया लुत्फ़ सूँ नज़र
लाया है सर नियाज़ सूँ तेरे चरन अगे
8
उसको हासिल क्यूँ होवे जग में फ़रोग़-ए-ज़िदगी
गर्दिश-ए-अफ़लाक है जिसकूँ अयाग़-ए- ज़िदगी
ऐ अज़ीज़ाँ सैर-ए-गुलशन है गुल-ए-दाग़-ए-अलम
सुहबत-ए-अहबाब है मा'नी में बाग़-ए- ज़िदगी
लब हैं तेरे फि़लहक़ीक़त चश्म-ए-आब-ए-हयात
खि़ज़्र ख़त ने उससूँ पाया है सुराग़-ए- ज़िदगी
जब सूँ देखा नईं नज़र भर काकुल-ए-मुश्कीन-ए-यार
तब सूँ ज्यूँ संबल परीशाँ है दिमाग़-ए- ज़िदगी
आसमाँ मेरी नज़र में काबा-ए-तारीक है
गर न देखूँ तुजकूँ ऐ चश्म-ओ-चिराग़-ए- ज़िदगी
लाला-ए-ख़ूनीं कफ़न के हाल सूँ ज़ाहिर हुआ
बस्तगी है ख़ाल सूँ ख़ूवाँ के दाग़-ए- ज़िदगी
क्यूँ न होवे ऐ 'वली' रौशन शब-ए-क़द्र-ए-हयात
है निगाह-ए-गर्म-ए-गुलरूयाँ चिराग़-ए- ज़िदगी
9
जिसे इश्क़ का तीर कारी लगे
उसे ज़िदगी क्यूँ न भारी लगे
न छोड़े मुहब्बत दम-ए-मर्ग लग
जिसे यार जानी सूँ यारी लगे
न होवे उसे जग में हरगिज़ क़रार
जिसे इश्क़ की बेक़रारी लगे
हरेक वक़्त मुझ आशिक़-ए-पाक कूँ
प्यारे तेरी बात प्यारी लगे
'वली' कूँ कहे तू अगर एक वचन
रक़ीबाँ के दिल में कटारी लगे
10
अगर गुलशन तरफ़ वो नो ख़त-ए-रंगीं अदा निकले
गुल-ओ-रेहाँ सूँ रंग-ओ-बू शिताबी पेशवा निकले
खुले हर ग़ुंच-ए-दिल ज्यूँ गुल-ए-शादाब शादी सूँ
अगर टुक घर सूँ बाहर वो बहार-ए-दिल कुशा निकले
ग़नीम-ए-ग़म किया है फ़ौज बंदी इश्क़ बाराँ पर
बजा है आज वो राजा अगर नोबत बजा निकले
निसार उसके क़दम ऊपर करूँ अंझुवाँ के जौहर सब
अगर करने को दिलजोई वो सर्व-ए-ख़ुश अदा निकले
सनम आए करूँगा नाला-ए-जाँ सोज़ क्यूँ ज़ाहिर
मगर उस संग दिल सूँ महरबानी की सदा निकले
रहे मानिंद-ए-लाल-ए-बेबहा शाहाँ के ताज ऊपर
मुहब्बत में जो कुई असबाब-ए-ज़ाहिर कूँ बहा निकले
बख़ीली दरस की हरगिज़ न कीजो ऐ परी पैकर
'वली' तेरी गली में जबकि मानिंद-ए-गदा निकले।
11
सरोद-ए-ऐश गावें हम, अगर वो उश्व साज़ आवे
बजा दें तब्ल शादी के अगर वो दिलनवाज़ आवे
ख़ुमार-ए-हिज्र ने जिसके दिया है दर्द-ए-सर मुजकूँ
रखूँ नश्शा नमन अँखियाँ अगर वो मस्त-ए-नाज़ आवे
जुनून-ए-इश्क़ में मुजकूँ नहीं ज़ंजीर की हाजत
अगर मेरी ख़बर लेने कूँ वो ज़ुल्फ़-ए-दराज़ आवे
अदब के एहतिमाम आगे न पावे बार वाँ हरगिज़
लिए साये की पाबोसी कूँ गर रंज-ए-अयाज़ आवे
अजब नईं गर गुलाँ दौड़ें पकड़ कर सूरत-ए-क़मरी
अदा सूँ जब चमन भीतर वो सर्व-ए-सरफ़राज़ आवे
परस्तिश उसकी मेरे सर पे होवे सर सिती लाजि़म
सनम मेरा रक़ीबाँ के अगर मिलने सूँ बाज़ आवे
'वली' उस गौहर-ए-कान-ए-हया की क्या कहूँ ख़ूबी
मिरे घर इस तरह आता है ज्यूँ सीने में राज़ आवे
12
जिस वक़्त तबस्सुम में वो रंगीं दहन आवे
गुलज़ार में ग़ुंचे के दहन पर सुख़न आवे
ताहश्र उठे बू-ए-गुलाब उसके अरक़ सूँ
जिस बरमिनीं यकबार वो गुल पैरहन आवे
साया हो मेरा सब्ज़ बरंग-ए-पर-ए-तूती
गर ख़्वाब में वो नो ख़त-ए-शीरीं बचन आवे
खींचे अपस अँखियाँ मिनीं ज्यूँ कुहल-ए-जवाहर
उश्शाक़ के घर हाथ वो ख़ाक-ए-चमन आवे
यक गुल कूँ अपस हाल में उस वक़्त न पावे
जिस वक़्त चमन बीच वो रश्क-ए-चमन आवे
आलम में तेरे होश की तारीफ़ किया हूँ
ऐसा तो न कर काम कि मुझ पर सुख़न आवे
गर हिंद में तुझ ज़ुल्फ़ की, काफि़र कूँ ख़बर हो
सुनने कूँ सबक़ कुफ़्र का हर बिरहमन आवे
हरगिज़ सुख़न-ए-सख़्त को लावे न ज़बाँ पर
जिस दहन में यक बार वो नाज़ुक बदन आवे
ताहश्र करे सैर-ए-ख़याबाँ के चमन में
गर गौर पे आशिक़ के वो अमरत बचन आवे
बर जा है अगर जग में 'वली' फिर कि दुजे बार
रख शौक़ मिरे शे'र का 'शौक़ी हसन' आवे
13
अगर मुझ कन तू ऐ रश्क-ए-चमन होवे तो क्या होवे
निगह मेरी का तेरा मुख वतन होवे तो क्या होवे
सियह रोज़ाँ के मातम की सियाही दफ़्अ करने कूँ
अगर यक निस तू शम्मे-अंजुमन होवे तो क्या होवे
तेरी बाताँ के सुनने का हमेशा शौक़ है दिल में
अगर यकदम तूँ मुझ सूँ हमसुख़न होवे तो क्या होवे
हुआ जो शौक़ में तुझ देखने के ऐ हलाल अबरू
उसे अँखियाँ के पर्दे का कफ़न होवे तो क्या होवे
अगर ग़ुंचा नमन इक रात इस हस्ती के गुलशन में
'वली' मुझ बर में वो गुल पैरहन होवे तो क्या होवे
14
हाफ़िज़े का हुस्न दिखलाया है निस्यानी मुझे
है कलीद-ए-क़ुफ़्ल-ए-दानिश तर्ज़-ए-नादानी मुझे
मौजज़न है दिल में मेरे हर रयन में पेचोताब
जब सूँ तेरी ज़ुल्फ़ ने दी है परीशानी मुझे
क्यूँ परीरूयाँ न आवें हुक्म में मेरे तमाम
तुझ दहन की याद है मुहर-ए-सुलेमानी मुझे
यक पलक दूजे पलक सूँ नईं हुई है आशना
जब सूँ तेरे हुस्न ने बख़्शी है हैरानी मुझे
ऐ 'वली' हक़ रफ़ाक़त के अदा करते भी क्या
मुस्तहक़्क़-ए-मग़फि़रत आलूदा दामानी मुझे
15
मुदद्त हुई सजन ने किताबत नईं लिखी
आने की अपने रम्ज़-ओ-किनायत नईं लिखी
मैं अपने दिल की तुझकूँ हिकायत नईं लिखी
तेरी मफ़ार्क़त की शिकायत नईं लिखी
करता हूँ अपने दिल की नमन चाक-चाक उसे
जो आह के क़लम सूँ किताबत नईं लिखी
तस्वीर तेरे क़द की मुसव्विर न लिख सके
हरगिज़ किसी ने नाज़ की सूरत नईं लिखी
मारा है इंतिज़ार ने मुझकूँ वले हनोज़
उस बेवफा कूँ दिल की हक़ीक़त नईं लिखी
क्यूँ संग-ए-दिल तमाम मुसख़्ख़िर हुए अगर
ताल्अ में मेरे कश्फ़-ओ-करामत नईं लिखी
डरता है सादगी सिती मोहन की ऐ 'वली'
इस ख़ौफ़ सूँ रक़ीब की अत-पत नईं लिखी
16
मग़ज़ उसका सुबास होता है
गुलबदन के जो पास होता है
आ शिताबी नईं तो जाता हूँ
क्या करूँ जी उदास होता है
क्यूँकि कपड़े रंगूँ मैं तुज ग़म में
आशिक़ी में लिबास होता है?
तुज जुदाई में नईं अकेला मैं
दर्द-ओ-ग़म आस-पास होता है
ऐ 'वली' दिलरुबा के मिलने कूँ
जी में मेरे हुलास होता है
17
सनम मेरा सुख़न सूँ आशना है
मुझे फि़क्र-ए-सुख़न करना बजा है
चमन में वस्ल के हर जल्वए-यार
गुल-ए-रंगीं बहार-ए-मुदद्आ है
न बख्श़े क्यूँ तेरा ख़त जिंद़गानी
कि मौज-ए-चश्मए-आब-ए-बक़ा है
तग़ाफ़ुल ने तिरे ज़ख़्मी किया मुझ
तेरी ये कमनिगाही नीमचा है
नहीं वाँ आब, ग़ैर अज़ आब-ए-ख़ंजर
शहादत गाह-ए-आशिक़ कर्बला है
ग़नीमत बूझ मिलने कूँ 'वली' के
निगाह-ए-पाकबाज़ाँ कीमिया है
18
इश्क़ में जिसकूँ महारत ख़ूब है
मश्रब-ए-मजनूँ तरफ़ मंसूब है
आशिक़-ए-बेताब सूँ तर्ज़-ए-वफ़ा
ज्यूँ अदा मेहबूब की मेहबूब है
इश्क़ के मुफ़्ती ने यो फ़त्वा दिया
देखना ख़ूबाँ का दर्स-ए-ख़ूब है
लख़्त-ए-दिल पे ख़त लिखा हूँ यार कूँ
दाग़-ए-दिल मुहर-ए-सर-ए-मक्तूब है
ग़म्ज़-ओ-नाज-ओ-अदा-ए-नाज़नीं
ज़ुल्म है, तूफ़ान है, आशोब है
लिख दिया यूसुफ़ ग़ुलामी ख़त तुझे
गरचे नूर-ए-दीदए-याक़ूब है
हर घड़ी पढ़ता है अशआर-ए-'वली'
जिसकूँ हर्फ़-ए-आशिक़ी मर्ग़ूब है
19
तेरी ज़ुल्फ़ के पेच में छंद है
कि जिस छंद में चंद दर चंद है
ख़याल-ए-ज़ुलफ़ तुझ रसा का सनम
आशिक़ाँ के दिल का अलीबंद है
बिरह आग तेरा मेरे घर मिनीं
जो बंदा किया बंद दर बंद है
तकल्लुम है तुझ लब सूँ यूँ ख़ुशमज़ा
जो बेजा कया शक्कर-ओ-क़ंद है
दिवाना किया है 'वली' कूँ सदा
तिरी-ज़ुल्फ़ में क्या सजन! छंद है
20
इश्क़ में सब्र-ओ-रज़ा दरकार है
फि़क्र-ए-इसबाब-ए-वफ़ा दरकार है
चाक करने जामा-ए-सब्र-ओ-क़रार
दिलबर-ए-रंगीं क़बा दरकार है
हर सनम तस्ख़ीर-ए-दिल क्यूँ कर सके
दिलरुबाई कूँ अदा दरकार है
ज़ुल्फ़ कूँ वा कर कि शाह-ए-इश्क़ कूँ
साया-ए-बाल-ए-हुमा दरकार है
रख क़दम मुझ दीदा-ए-ख़ूँख़ार पर
गर तुझे रंग-ए-हिना दरकार है
देख उसकी चश्म-ए-शहला कूँ अगर
नर्गिस-ए-बाग़-ए-हया दरकार है
अज़्म उसके वस्ल का है ऐ 'वली'
लेकिन इम्दाद-ए-ख़ुदा दरकार है
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